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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !


किसी भी पूर्णिमा की रात मुझे उल्लास और मस्ती से भर देती है, फिर उस दिन तो थी शरद् पूर्णिमा की रात। उन्मद, खिलखिलाती और पूरे जग को अपने आँचल में समेटे उमड़ी पड़ती-सी !

फिर मैं मध्यभारत की आनन्दपूर्ण यात्रा से लौटता हुआ और निर्बन्ध तो नहीं पर निर्बाध दौड़ी चली जा रही देहरा एक्सप्रेस पर सवार !

यह छोटा-सा मोडक स्टेशन, जहाँ मध्यभारत की उर्वरा श्यामा धरित्री राजस्थान की रक्त-सिंचित पथरीली पृथ्वी से गले मिलती है।

राजस्थानी इतिहास के रोमांचकारी पृष्ठों और चाँदनी की अठखेलियों में आँखमिचौनी-सी खेलता मैं अपनी खिड़की पर बैठा हूँ।

दूर पर पहाड़ियाँ हैं, बीच में जंगल हैं, मैदान हैं, कहीं-कहीं छोटे झरनों का धीमा प्रवाह है और पुराने क़िलों की टूटी चारदीवारियाँ, चौकियों की बुर्जियाँ बिखरी पड़ी हैं।

कोई कहने-बताने की बात है कि ये जड़ खंडहर हैं-निर्जीव निरे पत्थर, पर क्या यह भी कोई कहने-बताने की बात है कि इन खंडहरों में हरेक का एक जीवित व्यक्तित्व है-बोलता जागता, प्राणों की धड़कनों से स्पन्दित होता, पुकारता और ललकारता व्यक्तित्व !

हमारे कहानीकारों को प्लाट नहीं मिलते, लेखकों को विषय नहीं सूझते और भावों की तितलियाँ कवियों की पकड़ से ऊपर उड़ा करती हैं। काश, ये सब इन जड़-जीवित बँडहरों की बातें सुनें और यहाँ बिखरी कहानियों, लेखों और कविताओं को बटोरें-बटोरें कि बटोरते ही रहें !

गाडी चल रही है कि पहाडियाँ? पराण कहते हैं पहले वे उडा करती थीं, उड़ा करती होंगी पर आज तो वे स्थिर हैं। फिर यह क्या कि कभी वे पास आ जाती हैं और कभी फिर दूर सरक जाती हैं? क्या वे अपने मन की कोई बात मनुष्य से कहने को उत्सुक हैं, पर झिझकती हैं कि उनकी बात यह आदमी समझेगा क्या?

और अचानक मैं अपने डिब्बे में झाँक रहा हूँ, तो उसमें सात-आठ सहयात्री हैं। क्या कर रहे हैं ये लोग? एक तो पढ़ रहे हैं गन्दी कहानियों की कोई पत्रिका, दूसरे एक सी. आई. डी. सिरीज़ की जासूसी पुस्तक, दो फेंक रहे हैं सिगरेट और कलेजा, दो-एक कर रहे हैं बकवाद, यानी कोस रहे हैं सरकार को और उन प्रश्नों पर दे रहे हैं धड़ाधड़ सम्मतियाँ, विशेषज्ञों की तरह, जिनका अभी अ आ इ ई भी वे नहीं जानते और बस एक है कि लिखे जा रहा है सोच-सोचकर अपना हिसाब !

और बाहर चाँदनी बरस रही है, जिसमें जीवन है, आनन्द है, रस है, एकाग्रता है।

पहाड़ियाँ दूर चली गयी हैं और जंगलों का स्थान खेतों ने ले लिया है। खेतों में हरियाली है, जीवन का सौन्दर्य है। मैं देख रहा हूँ कि मैं दोनों ओर के हरे-भरे खेतों के बीच से दौड़ा जा रहा हूँ कोई चालीस-पचास मील प्रति घण्टा के वेग से !

कुछ कैसा-कैसा लग रहा है यह? वैसा नहीं, वैसा, वैसा नहीं ! वैसा, कैसा जी? खेत सदा से मेरे मित्र हैं, मैं अकसर उनके बीच से गुज़रता हूँ, कभी दौड़कर तो कभी धीमे-धीमे और सदा ही मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं अपने सहृदय मित्रों की गोष्ठी में आ गया हूँ, पर आज मुझे वैसा अनुभव नहीं हो रहा है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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